Netaji Subhas Chandra Bose | भारत से जर्मनी और जापान यात्रा की सच्ची घटना Part1


सुभाषचंद्र बोस भारत के महान स्वतंत्रता सेनानियों में से एक हैं और इनकी पूरी कहानी ऐसी ही रोचक किस्सों से भरी हुई है, कैसे ये ब्रिटिश सरकार को चकमा देकर भारत से बाहर निकले, जर्मनी में हिटलर से मिले, जापान के Prime-Minister से मिले, सिंगापुर में अपनी एक आर्मी संगठित किया और भारत के बाहर से ब्रिटिश सरकार जो भारत पर शासन कर रही थी उनके खिलाफ जंग छेड़ी, आइये जानते हैं नेताजी सुभाषचंद्र बोस की भारत से जर्मनी और जापान यात्रा के घटनाओं पर नजर डालते हैं।

Germany to Japan by Submarine

9 फरवरी 1943, जर्मनी के शहर कील (Kiel) से एक सबमरीन रवाना होती है, हालांकि इस सबमरीन में सब जर्मन सैनिक बैठे हैं, लेकिन इन सभी सैनिकों के बीच एक इंडियन भी मौजूद है जिसका नाम है 'मत्सुदा' इस सबमरीन का मिशन था जर्मनी से साउथ की तरफ यात्रा करना और काम था अफ्रीका के बगल से होते हुए Mr.Matsooda को एक जापानी सबमरीन में शिफ्ट करना।

दोस्तों ये काम सुनाने में आसान लग रहा होगा लेकिन जिस समय की बात है उस समय यह बहुत ही खतरों और जोखिम से भरा कार्य था, क्योंकि ये वर्ल्ड वार-2 का समय था समुद्री इलाका ब्रिटिश जहाजी सैनिकों से भरा हुआ था, जर्मनी और जापान ब्रिटिश के खिलाफ लड़ रहे थे।

26 अप्रैल 1943, करीबन कई महिनों के सफर के बाद जर्मनी सबमरीन मैडागास्कर (Madagascar) के कोस्ट पर पहुंचती है, जहाँ जापानी सबमरीन इनका इंतजार कर रह होती है, लेकिन समुद्री तूफ़ान की वजह से इन दोनों सबमरीन का आमने सामने आना खतरनाक साबित हो सकता था, उपायस्वरूप अगले दो दिनों तक दोनों सबमरीन समुद्र में समानान्तर दूरी पर चलती रही, तूफ़ान ठहरने के बाद Mr.Matsooda जर्मनी सबमरीन से बाहर निकलते हैं और एक छोटी सी राफ्ट की मदद से जापानी सबमरीन की तरफ बढ़ते है जहाँ कैप्टेन मासाओ तेराओका (Masao Teraoka) उनका स्वागत करते हैं।

सबमरीन में सफर करनेवाले प्रथम भारतीय

आपके दिमाग में एक सवाल आ रहा होगा कि वर्ल्ड-वॉर 2 के समय एक जर्मन और जापानी सबमरीन एक इंडियन की मदद क्यों कर रहे थे? ऐसा इसलिए कि Mr. Matsooda और कोई नहीं हमारे नेताजी सुभाषचंद्र बोस थे और इस ऐतिहासिक यात्रा के दौरान सबमरीन में सफर करनेवाले वे इतिहास के पहले भारतीय बन जाते हैं।

India's Greatest Freedom Fighter

कहानी की शुरूआत करते हैं 1939 से ये वह साल था जब वर्ल्ड वॉर-2 की शुरुआत हुई थी, वायसराय लार्ड लिनलिथगो (Lord Linlithgo) ने भारत के तरफ से युद्ध की घोषणा कर दिया था उस समय भारतीय कांग्रेस पार्टी के पास ब्रिटिश मंत्रालय में कुछ कंट्रोल हुआ करता था मंत्रालय के इन भारतीय अधिकारियों ने इस्तीफा दे दिया, इसी समय के दौरान नेताजी अपनी खुद की पार्टी बना रहे थे, इस पार्टी का नाम था फॉरवार्ड ब्लॉक् (The Forward Bloc) हलाकि ये पार्टी कांग्रेस पार्टी से टूट कर बनी थी लेकिन साल 1940 तक आते-आते इसे कांग्रेस के मुख्य संगठन से अलग कर दिया गया था, इसके पीछे दो कारण थे एक तो सुभाषचंद्र बोस लेफ्टिस विचारधारा को मानने लगे थे जो कांग्रेस लीडर्स को पसंद नहीं आ रही थी और दूसरा कारण था नेताजी भारत की आजादी के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध का इस्तेमाल करना चाहते थे इसलिए कांग्रेस से अलग होना उनके लिए जरुरी हो गया था।

जुलाई 1940, कलकत्ता में नेताजी को एक रैली की अगुवाई करते समय ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरफ्तार कर लिया जाता है, जेल में एक भूख हड़ताल की शुरुआत करके वे ब्रिटिश सरकार को चैलेंज करते हैं और कहते हैं 'Release Me or, I shall refuse to Live'. देखते-देखते एक हफ्ते गुजर जाते हैं और नेताजी की तबियत  बिगड़ने लगती है ये देखकर ब्रिटिश सरकार उन्हें जेल से निकाल कर नजरबन्द (House Arrest) पर रख देती है,सरकार का प्लान था जब नेताजी ठीक हो जायें तो फिर से उन्हें जेल में डाल दिया जायेगा लेकिन नेताजी कुछ और ही योजना बना रहे थे उनका प्लान था जर्मनी जाना और उनसे ब्रिटिश के खिलाफ लड़ने के लिए मदद मांगना, लेकिन जर्मनी जाना इतना आसान नहीं था, वे पंजाब के एक कम्युनिस्ट संगठन से पता लगाते हैं कि अफगानिस्तान होकर सोवियत यूनियन के रास्ते जर्मनी जाया जा सकता है, फिर क्या था .. आगे पढ़िये

सुभाषचंद्र बोस भारत से पेशावर

16 जनवरी 1941, रात के करीब 1:30 बजे जब पूरा शहर सो रहा था नेताजी एक इंश्योरेंस एजेंट का भेष बनाकर अपने भतीजे शिशिर कुमार को साथ लेकर निकलते हैं और नाम था मोहम्मद जिआउद्दीन, रात भर कार चलाते हुए वे सुबह के 8:30 बजे अपने भतीजे क साथ धनबाद पहुँचते हैं यहाँ वे एक रात शिशिर के भाई अशोक के घर पर बिताते हैं, अगले दिन नजदीक के गोमो (Gomo) स्टेशन से कालका मेल ट्रेन में उठ जाते हैं, ट्रेन दिल्ली पहुंचती है, वहां से ट्रेन बदलकर वे फ्रंटियर मेल (The Frontier Mail) में उठते हैं और पेशावर के लिए रवाना होते हैं, पेशावर में फॉरवर्ड ब्लॉक् के प्रोविंशियल लीडर मियां अकबर शाह के द्वारा इन्हें रिसीव किया जाता है।

सुभाषचंद्र बोस पेशावर से काबुल

अगला पड़ाव ब्रिटिश राज के इलाके से पूरी तरह बाहर निकलना था, ऐसा करने के लिए नेताजी फिर से अपना भेष बदलते हैं इस बार वे मोहम्मद जिआउद्दीन से एक गूंगा-बहरा पठान बन जाते हैं, गूंगा-बहरा होना इसलिए जरुरी था कि नेताजी को पश्तो (Pashto) भाषा बोलना नहीं आता था और बॉर्डर पर चेकिंग के समय उनका साथी (भगत राम) बता देगा कि वे गूंगा और बहरा हैं और पश्तो भाषा बोलने की नौबत ना आये।

इस तरह नेताजी फॉरवर्ड ब्लॉक् के लीडर भगत राम तलवार के साथ अगली यात्रा पर निकल पड़ते हैं और कोई पूछे तो बताते हैं वे अफगानिस्तान में अड्डा सरीफ के मजार पर प्रार्थना करने जा रहे हैं ताकि इन्हें सुनने और बोलने की शक्ति वापस मिल जाये।

26 जनवरी 1941, एक गाड़ी का इंतजाम करके ये पेशावर से निकलते हैं और शाम होते-होते ब्रिटिश हुकूमत का बॉर्डर पार कर लेते हैं, 29 जनवरी के सुबह तक वे अड्डा सरीफ पहुँच जाते हैं और कुछ ट्रक और टैंक के द्वारा काबुल तक का सफर पूरा करते हैं।

सुभाषचंद्र बोस Escaped

कलकत्ता से काबुल जाने में नेताजी को 15 दिनों का समय लग जाता है लेकिन शुरुआती दिनों में भारतीय ब्रिटिश सरकार को इसकी भनक तक नहीं लगती है ब्रिटिश सरकार को इसके बारे में 12 दिनों बाद पता चलता है, ऐसा इसलिए कि नेताजी के घर में मौजूद लोग प्रतिदिन नेताजी के कमरे में खाना भिजवा रहे थे और उनके बाकि के भतीजे उनका खाना खा जाया करते थे, सुभाषचंद्र की माँ और बाकि लोगों को लगता था की वे अभी भी कमरे में हैं।

इस बात का पता ऐसे चला कि 27 जनवरी को नेताजी की कोर्ट में पेशी थी और जब वे अदालत में हाजिर नहीं हुए तो उनके भतीजों ने बताया की 'सुभाष काका बाड़ी ते नाई'. फिर क्या था इनके गायब होने की खबर आग की तरह पूरे हिंदुस्तान में फैल गयी, अख़बारों में चर्चे होने लगे, ब्रिटिश इंटेलिजेंस अपने तरह से छानबीन और पता लगाने की कोशिश करती है जापान जानेवाली जहाजों की तलाशी भी ली जाती है लेकिन सुभाषचंद्र बोस का कोई पता नहीं चलता है, ये वह समय था जिसके बाद ब्रिटिश सरकार नेताजी को कभी नहीं पकड़ पायी।

Subhash Chandra Bose in Kabul

काबुल पहुंचने के बाद नेताजी सोवियत की एम्बेसी (Embassy) में मदद के लिए जाते हैं लेकिन वहां से उन्हें कोई मदद नहीं मिलती है फिर वे जर्मनी एम्बेसी को कांटेक्ट करने की कोशिश करते हैं उस समय जर्मन के एक मिनिस्टर हान्स पिगलर (Hans Pigler) काबुल के जर्मन एम्बेसी में मौजूद थे नेताजी से बात करके जर्मन फॉरेन मिनिस्टर को एक टेलीग्राम भेजते हैं और नेताजी को उनके दोस्तों के साथ छिपकर रहने में मदद करते हैं, कुछ दिनों बाद नेताजी को खबर मिलती है कि अगर उन्हें अफगानिस्तान-काबुल से बाहर निकलना है तो इटालियन एंबेसडर से मिलना होगा।

Subhash Chandra Bose As Orlando Mazzotta

22 फ़रवरी 1941, इटालियन एंबेसडर के साथ एक मीटिंग होती है, 10 मार्च 1941, बोस को नये नाम (Orlando Mazzotta) से एक नया इटालियन पासपोर्ट इश्यू किया जाता है इसी बीच इंडियन ब्रिटिश सरकार को पता लग जाता है कि Mr.Bose काबुल में हैं और मिडिल-ईस्ट के रास्ते जर्मनी जाने की तयारी कर रहे हैं।

Subhash Chandra Bose in Berline-Germany

दो ब्रिटिश इंटेलिजेंस को बोस को ढूंढ़ कर मार डालने की जिम्मेदारी दी जाती है, लेकिन नेताजी अपने प्लान को बदल देते हैं और मिडिल-ईस्ट के बजाय मॉस्को (Moscow) पहुँच जाते हैं और वहां से बर्लिन की ट्रेन से 2nd April 1941 को जर्मनी की राजधानी बर्लिन में दाखिल होते हैं, जर्मनी पहुंचने का एक मिशन तो पूरा होता दिख रहा था लेकिन यहाँ नेताजी के तीन मकसद थे :
1.जर्मनी में भारतीय निर्वासित सरकार की स्थापना - Set-up Indian Government in exile
2.लोगों तक अपनी बात पहुँचाने का माध्यम तैयार करना
3.विदेशी जेलों में भारतीय सैनिकों को इकठ्ठा कर एक इंडियन आर्मी की स्थापना करना

आइये जानते हैं जर्मनी के तानाशाह हिटलर से मुलाकात और नेताजी ने अपने मकसदों को कैसे पूरा किया

Subhash Chandra Bose Meet Hitler

यहाँ नेताजी के लिए सबसे बड़ा संघर्ष का काम था जर्मनी भारत को एक पूर्ण स्वतंत्र राष्ट्र की पहचान दे वे चाहते थे जर्मनी और बाकि देश ऑफिसियली भारत को एक आजाद देश घोषित करें, लेकिन जर्मनी ने ऐसा करने से मना कर दिया, हिटलर इस बात से एकमत नहीं था, अपने लिखित किताब माइन काम्फ (Mein Kampf) में हिटलर ने भारत के ऊपर अपनी राय बताते हुए लिखा है कि वह ब्रिटिश सरकार की प्रशंसा करता है कि उन्होंने भारत पर बहुत प्रभावी तरीके से अपना शासन कायम किया है जो काबिले तारीफ है और वह भारत को ब्रिटिश शासन के अधीन देखना चाहता है, उसने इस किताब में इंडियन फ्रीडम-फाइटर का मज़ाक भी उड़ाया है, लेकिन फिर भी हिटलर सुभाषचंद्र बोस का इस्तेमाल द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटिश के खिलाफ करना चाहता था, नेताजी भी इस बात को समझ चुके थे कि इस रिलेशन में दोनों का फायदा हो रहा है।

Establishment of Free India Centre

वे दुनिया भर के एक्सिस पावर के साथ कोलाबोरेट करके बर्लिन में फ्री इंडिया सेंटर (Free India Centre) की स्थापना करते हैं और एक मेमोरेंडम के तहत हिटलर से अपील करते हैं कि वह अपनी आर्मी को लेकर भारत पर हमला करे ताकि ब्रिटिश एम्पायर को वहां से हटाया जा सके लेकिन कोई पॉजिटिव रिजल्ट नहीं निकलता है, हिटलर को भारत की आजादी की कोई परवाह नहीं थी लेकिन एक जर्मन ऐडोम वॉन ट्रॉट (Adam Von Trott) जो भारत के लिए नेताजी की मदद करना चाहता था, Head of the India Section of foreign office in Berlin की मदद से इस ऑफिस को एक स्पेशल इंडियन डिवीज़न (Special Indian Division) बना दिया जाता है, कुछ ही महीनों बाद 2nd November 1941 को बोस यहाँ पर Free India Centre की स्थापना करते हैं, इस सेंटर पर होनेवाली पहली मीटिंग में छह फैसले लिए जाते हैं :

1. इस पूरे संघर्ष का नाम होगा आजाद हिन्द or, Free India
2. यूरोप में इस संगठन का नाम होगा आज़ाद हिन्द सेंटर
3. फ्री इंडिया सेंटर का नेशनल एंथम होगा 'जन गण मन'
4. इस आंदोलन का झंडा तिरंगा होगा और अशोक चक्र के जगह बाघ चिन्ह होगा
5. यह आर्मी एक दूसरे को जय-हिन्द कह के सलामी देगी
6. सुभाषचंद्र बोस को नेताजी की उपाधि से नवाजा गया
इससे पहले 20 मई 1941 को जर्मन सरकार को एक प्लान सबमिट किया गया था, इसमें बताया गया था कैसे दुनिया भर में ब्रिटिश हुकूमत के प्रोपेगंडा पर काम किया जा सकता है, इसी प्लान का एक हिस्सा था 'आज़ाद हिन्द रेडियो' (Azad Hind Radio)

19 फ़रवरी 1942, ऑरलैंडो माजोटा (Orlando Mazzotta)  की पहचान को त्यागकर नेताजी दुनिया के सामने अपना पहला सन्देश पहुंचाते हैं  'This is Subhash Chandra Bose, Speaking to you over Azad Hind Radio'.

फ़रवरी 1942 तक भारत में आज़ाद हिन्द रेडियो का प्रसारण शुरू हो गया था, नेताजी ने देशवाशियों के नाम सन्देश में कहा "सब लोग अपनी लड़ाई जारी रखो, दुनिया के देश इस लड़ाई में हमारी मदद करेंगे और हम ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ेंगे, हमने जो आज़ादी की लड़ाई छेड़ रखी है उसे तब तक जारी रखना होगा जब तक हमें मुकम्मल आज़ादी हासिल न हो जाय"

Azad Hind Monthly Journal

जर्मनी में रेडियो के अलावा आज़ाद हिन्द के नाम से मासिक पत्रिका छापने की योजना बनाई गयी जिसे मार्च 1942 में रोल्ड-आउट किया गया, कुछ ही दिनों में इस पत्रिका की 5000 से अधिक प्रतियां बांटी जाने लगी थी, इस तरह नेताजी का दूसरा मकसद भी पूरा हो गया लेकिन तीसरा मकसद पूरा करने में कुछ अड़चने आ रही थी, बोस चाहते थे वे जो आर्मी खड़ी कर रहें हैं उसे इंडियन नेशनल आर्मी का नाम दिया जाये लेकिन जर्मन सरकार ने नए स्वतंत्र आर्मी को भारतीय राष्ट्रीय आर्मी की मान्यता देने से इनकार कर दिया, इसलिए इस सेना का नाम Indian Legion रखा गया, नेताजी यहाँ 10000 से ज्यादा सिपाही कैदियों से मिले, उनसे बात की, सभी को कंविंस नहीं कर पाए लेकिन आधे लोग उनकी आर्मी ज्वाइन करने के लिए राजी हो गए, ये आर्मी छोटी जरूर थी लेकिन कई माईने में इतिहास में इनका नाम याद रखा जाता है, इस आर्मी में अलग-अलग धर्म और जाति के लोग इकठ्ठा हो गए थे, ये नेताजी सुभाषचंद्र बोस की खासियत थी।
Captain Walter Harbich जो ट्रेनिंग कैंप के इंचार्ज थे उन्होंने नेताजी के बारे में कहा था कि "His Excellency Netaji’s goal was to paralyse the century-old antagonisms rooted in the Indian nationalities,  religions and castes, and to unite the members of both these units in one great common aim"

Establishment of Indian Legion

26 अगस्त 1942, इंडियन लीजन Army शपथ (Oath) लेती है और इसके साथ ही नेताजी प्रायः अपने तीनों मकसदों को पूरा कर लेते हैं शिवाय एक चीज के कि दुनिया के एक्सिस पावर ने भारत को अभी भी एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित नहीं किया था इसके पीछे सबसे बड़ा कारण था भारतीयों के प्रति हिटलर का नेगेटिव एटीट्यूड, कुछ महीने पहले नेताजी ने हिटलर से ब्रिटिश के खिलाफ प्रोपेगैंडा के विषय में बात किया था कोई परिणाम ना मिलने के कारण नेताजी जापान से बात करने का इरादा बनाते हैं, अब तक ये खबर जापान में फैल चुकी थी कि ब्रिटिश को इंडिया से बाहर फेंकने के लिए जर्मनी में एक स्वतंत्र आर्मी बनाई जा रही है और जापानी प्राइम-मिनिस्टर Hideki Tojo का 1942 में कहना था की भारत को भी ब्रिटिश शासन के खिलाफ खड़ा होने का समय आ गया है।

फ़रवरी 1942 में जापान सिंगापुर में ब्रिटिश को हराने के बाद 40000 सिपाही जो ब्रिटिश की तरफ से लड़ रहे थे उन्हें जापान के द्वारा प्रिसनर्स ऑफ़ वॉर बना लिया गया था नेताजी को इन कैदियों को अपनी आर्मी में शामिल करने का मौका दिखता है इसलिए वे जापान की तरफ रूख करते हैं।
इस सब के बीच अगस्त 1942 में गांधीजी भारत में अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोडो आंदोलन का ऐलान कर देते हैं, ये खबर जब नेताजी को मिलती है तो वे बहुत खुश होते हैं और आज़ाद हिन्द रेडियो के जरिये अपना सन्देश देते हैं "सभी इंडियन गांधीजी का समर्थन करें" 31 अगस्त 1942, जब नेताजी को पता चलता है कि सावरकर और जिन्ना जैसे नेता क्विट इंडिया मुवमेंट के खिलाफ हैं तो वे आज़ाद हिन्द रेडियो पर ऐसा कहते हैं "I would request Mr.Jinnah and Mr.Savarkar and all those leaders who will still think of a compromise with the Britisher’s to realize for once of all that in the world of tomorrow there would be no British Empire"
सन् 1940 नेताजी और गांधीजी की आखिरी फेस टू फेस मुलाकात हुई थी इस मीटिंग में गांधीजी ने नेताजी को कहा था अगर आपके तरीके इंडिया को आज़ादी दिलाने में सफल होते हैं तो सबसे पहला बधाई का टेलीग्राम मेरी तरफ से आएगा, इस घटना का विवरण नेताजी ने अपने किताब The Indian Struggle में दिया है।

8 फ़रवरी 1943, नेताजी अपने दोस्त ACN Nambiar को आज़ाद हिन्द सेंटर और इंडियन लीजन का इंचार्ज बनाकर पानी के रास्ते जर्मनी से जापान की ओर निकल पड़ते हैं यहाँ नेताजी एक नए भेष और पहचान के साथ सबमरीन में सफर करते हैं, इस यात्रा में इनका नाम था Mr.Matsooda जिसकी चर्चा लेख के शुरू में की गयी है, 8 मई 1943, ये सबमरीन साबंग (Sabang) पहुंचती है जो आज इंडोनेशिया का एक हिस्सा है वहां से नेताजी टोक्यो (Tokyo) को रवाना होते हैं और 16 मई 1943 को जापान पहुँच जाते हैं।

Subhash Chandra Bose in Japan

यहाँ जापान के प्रधानमंत्री तोजो से दो बार मुलाकात होती है पहला 10 जून 1943 और दूसरा 14 जून 1943, अपनी दूसरी मुलाकात में नेताजी उनसे पूछते हैं "क्या जापान भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अपनी मदद दे सकता है" जहाँ जर्मनी में महीनों की कोशिश के बाद भी हिटलर नहीं माना था वहां जापान में इस दूसरी मुलाकात में जापान साथ देने को राजी हो गया, प्रधान मंत्री तोजो कहते हैं "हम इंडिया की इस लड़ाई में मदद करेंगे" जापान का ये समर्थन दुनिया को सार्वजनिक किया जाता है, दो दिन बाद 16 June 1943 को नेताजी जापान के एक सभा में शामिल होते हैं यहाँ प्रधानमंत्री तोजो ने कुछ ऐसा कहा था "इंडिया सदियों से इंग्लैंड के शासन तले दबा रहा है हम यहाँ पूर्ण रूप से स्वाधीनता की आकांक्षा दिखाते हैं और कहते हैं कि जापान भारत को आज़ादी दिलाने के लिए हर वो काम करेगा जो करना पड़े, मुझे यकीन है कि इंडिया की आज़ादी अब ज्यादा दूर नहीं है"

इसके बाद सुभाषचंद्र बोस की तरफ से एक स्टेटमेंट दी जाती है जिसमे वे कहते हैं "India and Japan have in their past been bound by the cultural ties, which are about 20 centuries old, in recent time these cultural relation have been interrupted because of the British domination of India. It is however certain that when India is free these relations will be revived and will be destiny, in this connection I should add the statements made by and repeated by him before the imperial diet on the 16th June 1943, Have made a profound impression on India and have greatly helped the Indian Independent“

Subhash Chandra Bose in Singapore

जापान में नेताजी की मुलाकात भारतीय स्वतंत्रता सेनानी Rashbehari Bose से होती है जिन्होंने जापान में मौजूद इंडियन नेशनल आर्मी  कमान सँभालने में अपना योगदान दिया था, 2nd July 1943, नेताजी रासबिहारी बोस के साथ सिंगापुर पहुँचते हैं यहाँ पर इंडियन नेशनल आर्मी की कमान नेताजी को सौंपी जाती है, नेताजी ने सिंगापुर में अपने भाषण के दौरान 'दिल्ली चलो' का नारा लगाया था, सिंगापुर के इस आर्मी में करीब 13000 जवान थे, नेताजी इसकी संख्या बढ़ाना चाहते थे, पहले 50000 और बाद में तीस लाख जवानों को इकठ्ठा करने का लक्ष्य रखा गया, जापानी सरकार इस प्लान को सुनकर दंग रह जाती है, सरकार कहती है हम इतने लोगों को हथियार नहीं दे पायेंगे सिर्फ 30000 जवानों को हथियार मुहैया करायी जाएगी लेकिन नेताजी के लिए ये सिर्फ हथियारों से लड़नेवाली लड़ाई नहीं थी वे चाहते थे कि देश की आम जनता भी इस आर्मी का हिस्सा बने यहाँ भी वही चीज़ देखी गयी जो जर्मनी के इंडियन लीजन में देखने को मिली थी, INA के सभी सिपाही अलग-अलग धर्मों के थे लेकिन इनके बीच रत्ती भर भेद-भाव नहीं देखा गया।

Establishment of Indian National Army

इंडियन नेशनल आर्मी (Indian National Army) का मोटो (Motto) तीन उर्दू शब्दों से बनाया गया 1. इत्तेफ़ाक़  2. इत्माद  3. कुर्बानी इसका मतलब है Unity, Faith and Sacrifice.
INA को पांच रेजिमेंट में भाग किया गया था, इन पांच रेजिमेंट को पांच Freedom Fighters के नाम पर रखा गया था गाँधी, नेहरू, मौलाना आज़ाद, सुभाष और झाँसी की रानी।
INA के Campaign Poster में चलो दिल्ली का नारा लिखा हुआ था जिसके ऊपर महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू की तस्वीर छापी गयी थी, एक और भी पोस्टर बनाया गया था जिस पर महात्मा गाँधी और सुभाषचंद्र बोस के द्वारा कहे गए कोट्स (Quotes) लिखे गए थे।

7 अगस्त 1943, नेताजी अपने रेडियो सन्देश में कहते हैं "Even though Gandhi supported non-violence but he was ready to his full support to the Indian National Army and more significant than this was the fact that Gandhi’s followers would also support them"

2 अक्टूबर 1943, गाँधीजी के जन्मदिन नेताजी रेडियो के ऊपर एक सन्देश देते हुए कहते हैं "Mahatma Gandhi’s services to India were unique and unparalleled that his name should be written in gold in our national history, forever no single person could achieve as much in their life under those circumstances as much as Gandhi had achieved”
गांधीजी ने नेताजी के इस प्यार को वापस जताते हुए उन्हें "Prince of the Partriots" की उपाधि दी।

Establishment of Provinciary Government

21 अगस्त 1943, नेताजी सिंगापुर में आज़ाद हिन्द का प्रॉविन्सियरी (Provinciary) गवर्नमेंट की स्थापना करते हैं और इसके हेड बनते हैं, कहते हैं "ये कोई साधारण सरकार नहीं है, हमारा मिशन अनोखा है, हम सब लड़ाकू संगठन हैं, और हम ब्रिटिश के खिलाफ जंग का ऐलान करेंगे" अभी तक नेताजी के पास कोई टेरिटरी (Territory) नहीं थी लेकिन प्रॉविन्सिअल सरकार के बनने के बाद जितने भी इंडियन साउथ-ईस्ट एशिया में रहते थे वो औपचारिक रूप से इनके जुरिडिक्शन (Juridiction) के अंदर आ चुके थे, सिंगापुर में स्थापित की गयी सरकार को टैक्स वसूल, सैनिक नियुक्ति और नए कानून पास करने का अधिकार था।

Victory of Andaman Nicobar Island

दो महीने बाद दिसंबर 1943 में जैपनीज़-इंडियन आर्मी अंडमान निकोबार आइलैंड से ब्रिटिश को बाहर निकाल फेंकने में सफल होती है, जैपनीज़ सरकार इस टेरिटरी का पूरा कंट्रोल सुभाषचंद्र बोस को सौंप देती है, यह ब्रिटिश एम्पायर से आज़ाद होनेवाली पहली इंडियन टेरिटरी बन जाती है, 30 दिसंबर 1943 को सुभाषचंद्र बोस के द्वारा पोर्टब्लेयर में तिरंगा लहराया जाता है।

Sign Indo-Japanese Agreement

नेताजी की प्रोविंशियल सरकार एक इंडो-जापानीज लोन एग्रीमेंट भी बनाती है, 1944 में जापान के साथ ये आग्रह करते हैं कि इंडिया कोई जापान का क्लाइंट नहीं है बल्कि टेम्पररी एक कमजोर और Co-Equal Government और Army है, इसके तहत जापान इंडिया को सौ मिलियन येन (Yen) का लोन देता है लेकिन नेताजी उसमें से सिर्फ दस मिलियन येन ही इस्तेमाल करते है।

Subhash Chandra Bose in Rangoon

7 January 1944, नेताजी जापान से Indian Provincial गवर्मेंट हेडक्वार्टर को निकाल कर रंगून (Rangoon) बर्मा में शिफ्ट करते हैं जो इंडिया के बहुत करीब था, अगला टारगेट इम्फाल और कोहिमा को कब्ज़ा करना था, मार्च 1944 में यहाँ एक ऑफेन्स शुरू हो जाता है, जमीन पर वर्ल्ड-वॉर 2 के तहत घमासान युद्ध होता है, ये लड़ाई 3rd मार्च 1944 से 18 जुलाई 1944 तक (साढ़े चार महीने) तक चलती है, करीब एक लाख INA और जापानीज सैनिक एक तरफ लड़ रहे थे तो दूसरी तरफ से लड़ने वाले ब्रिटिश इंडियन आर्मी में भी भारतीय सिपाही थे, शुरुआत में INA बहुत हद तक सफल रहती है और मणिपुर के मोइरांग में तिरंगा लहराया जाता है, इंडियन मेनलैंड पर ये पहला तिरंगा वाला मोर्चा बनाया जाता है लेकिन जल्द ही हालात तेजी से बिगड़ने लग जाती है और नेताजी के पूरे प्लान पर पानी फीर जाता है कारण मई के महीने में बारिश का मौसम जल्दी दस्तक दे देता है, इस बारिश और कीचड़ में सैनिकों को लड़ना मुश्किल हो रहा था, दूसरी तरफ पैसिफिक ओसेन में जापानी आर्मी अमेरिका के हाथों हार का सामना रही थी और INA के पास ज्यादा एयर कवर मौजूद नहीं था जिससे वे हवाई मार्ग से खानापूर्ति कर सके इस मौके का फायदा उठाकर ब्रिटिश के जहाजों ने जैपनीज़ आर्मी के राशन सप्लाई लाइन पर हमला बोल दिया, फ़ूड और राशन ख़त्म होने लगे, INA और जापानीज सैनिकों के पास घास और जंगली चीजों के खाने के अलावा कोई चारा नहीं था।

Mahatma Gandhi as Father of Nation

6 July 1944, भारत छोडो आंदोलन के समय गिरफ्तार हुए गांधीजी को जेल से रिहा हुए दो साल हो चुके थे, नेताजी रेडियो पर एक मैसेज देते हैं, "Father of our Nation, In this holy war for Indians liberation we ask for your blessing and good wishes” ये पहली बार था जब किसी ने गांधीजी को फादर ऑफ़ नेशन कह कर पुकारा था, गांधीजी को फादर ऑफ़ नेशन की उपाधि सुभाषचंद्र बोस ने दी थी।

10 जुलाई 1944, जापान नेताजी को इन्फॉर्म करता है कि उनकी मिलिट्री पोजीशन को अब डिफेंड नहीं किया जा सकता है, सेना को वापस लौटने के अलावा कोई रास्ता नहीं है, इम्फाल में अटैक के फेल होने के बाद INA की रेजिमेंट वापस बर्मा आ जाती है।

21 अगस्त 1944, में नेताजी इम्फाल फेलियर को लोगों के सामने उजागर करते हैं और कहते हैं "बारिश के मौसम जल्दी आने और राशन सप्लाई सिस्टम में रुकावट की वजह से हमें वापस लौटना पड़ा, नेताजी इसके बाद वापस सिंगापुर लौट जाते हैं और INA को दुबारा संगठित करने की कोशिश करते हैं, इसके आगे क्या होता है इस आंदोलन को कैसे आगे बढ़ाया जाता है, पढ़िए हमारे पार्ट- 2 लेख में ..
जय हिन्द

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